Wednesday, April 6, 2011

NARESH SONEE’S THOUGHS ARE LIKE A TIME BOMB- Journalist

NARESH SONEE’S THOUGHS ARE LIKE A
TIME BOMB- A MOSES IS BORN AGAIN.

BRAHMAND PUJAN  Naresh Sonee- Review
By Apna Mahanagar News Paper ,
Journalist &  Senior Editor S.P.Yadav [ Samiksha in Hindi ]
Viristh Patrakar Hindi Dainik Mahanagar , Mumbai

Hindi to English translate [precise -synopsis]


NARESH SONEE’S THOUGHS ARE LIKE A TIME BOMB
ON READING  ‘BRAHMAND PUJAN’  I FELT THAT.....
A
Moses IS BORN AGAIN
.....Journalist S.P.Yadav

Moses receives the Ten Commandments.
Moses (Hebrew: מֹשֶׁה‎, Modern Moshe Tiberian Mōšéh ISO 259-3 Moše; Greek: Mωϋσῆς Mōüsēs; Arabic: موسىٰ Mūsa) was, according to the Hebrew Bible, a religious leader, lawgiver, and prophet, to whom the authorship of the Torah is traditionally attributed. Also called Moshe Rabbenu in Hebrew (מֹשֶׁה רַבֵּנוּ, Lit. "Moses our Teacher/Rabbi"), he is the most important prophet in Judaism,[1][2] and is also considered an important prophet in Christianity and Islam, as well as a number of other faiths.

Read what the journalist says about Naresh Sonee-

Not in the deserted mountains of Israel but in the posh city of Mumbai. A ‘One Man Army’ who delivers and bombard
‘One & Only One Universal Commandments of Wisdom'.
A message of Almighty God which he had found to enlighten

the conscious of people.

Often people before reading the title of book, imagine and try

to quiz and visualize all sorts of appearances of the writer. But before reading the book I was lucky so had an opportunity
to interview and meet the writer.  Hence I was deprived and missed the golden chance to decorate my imaginations about the author.


However, Shri Naresh Sonee, The author of Brahmand Pujan
[Worship Universe] met me in an entirely simple manner and  appeared in a very simple costume like every common man does.

First I thought, as usual and again I would have to  postmortem some book of an author as journalist. But after reading the verses of Brahmand Pujan, I learnt that really around the core of words,
a missile is wrapped with wisdom full naked truth. Such missile
which shake the inner conscious in mere few words and is certainly capable, competent and adequate to delivers the quintessence and mystery of  Vedas, Purans, Geeta, Koran and Bible in front of the readers. Additionally it is capable to cut, tear and split the illusive deceitful net [web]  of superstitions. It's a world class book    - S.P.Yadav (APNA MAHANAGAR )


         Brahmand Pujan Naresh Sonee- Review by S.P. Yadav










Brahmand Pujan Book - Review of Editor Shri.SP Yadav
एस पी यादव
वरिष्ठ पत्रकार हिंदी दैनिक महानगर, मुंबई

27, Jan 2011,

प्रिय सोनी साहब!
नमस्कार...

ब्रह्मांड पूजन पढ़ी... आपको धन्य अनुभूति हुई है...आपके विचार किसी टाइमबम की तरह हैं जो सुप्त चेतना को जगाने में कारगर हो सकते है। अपनी क्षमता भर मैंने आपके सवालों का जवाब देने का प्रयास किया है। शब्दों में मात्रा आदि की मामूली त्रुटियों को छोडक़र कुछ आलोचना करने जैसा नहीं लगा... सो मैंने भी बेवजह पत्रकारिता की शेखी नहीं बघारी।
सस्नेह
एसपी यादव

ब्रह्मांड पूजन पढक़र पहली बार हुई अनुभूति
ब्रह्मांड पूजन पहली बार पढक़र ऐसा लगा कि एक बार फिर कोई मोजेस पैदा हुआ है, जो इजरायल की दुर्गम पहाडिय़ों पर नहीं बल्कि मुंबई के एक पॉश उपनगर मालाड के आलीशान वातानुकूलित दफ्तर में बैठ कर लोगों की चेतना में ज्ञान का विस्फोट करने के लिए वन एंड वनली वन यूनिवर्सल कमांडमेंट फॉर आल (संपूर्ण मानव जाति के लिए एकमात्र ईश्वरीय संदेश) ढूंढ़ लाया है। अक्सर लोग कोई अच्छी किताब पढक़र उसके लेखक के बारे में तमाम तरह की कल्पनाएं करते या गढ़ते हैं। पर मुझे इस शाश्वत सत्य से साक्षात्कार कराती काव्यमय रचना ब्रह्मांड पूजन को पढऩे से पहले ही इसके लेखक से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, सो इस लेखक के बारे में कल्पना करने से मैं वंचित रह गया। नहीं तो निश्चित ही मन के किसी कोने में घास-फूस का लबादा ओढ़े किसी मोजेस या फिर साधारण वस्त्रों में असाधारण तेज के साथ किसी बोधिवृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध का अक्स उभरता। अफसोस इन सुनहरी कल्पनाओं को गढऩे-संवारने का मौका मुझे नहीं मिल पाया। ब्रह्मांड पूजन के लेखक श्री नरेश सोनी किसी आम शहरी की तरह साधारण वस्त्रों में साधारण ढंग से मिले।
ब्रह्मांड पूजन के बारे में सुनकर पहले तो ऐसा लगा था कि एक पत्रकार के तौर पर फिर किसी किताब का पोस्टमार्टम करने का मौका हाथ लगा है, लेकिन काव्यमय रचनाओं को पढक़र लगा कि लेखक ने शब्दों की खोल में शाश्वत सत्य का मिसाइल लपेट रखा हैं। ऐसे मिसाइल जो चेतना को झकझोर कर रख देते हैं। जो वेद, पुराण, गीता, कुरान के मर्म को मात्र कुछ शब्दों में पाठक को बताने में सक्षम हैं साथ ही अंधविश्वास के मायाजाल को चीर कर तार-तार कर देने में भी सक्षम हैं। शब्दों में जहां-तहां व्याकरण या लिपि की अशुद्धियां जरूर हैं, लेकिन उनमें जो शुद्धता समाहित है वह आज के इस फेसबुक और ऑर्कुट के दौर में लोगों को परमात्मा की सही व सटीक पहचान कराने में असरदार रूप से सक्षम है।

पुस्तक पढऩे के बाद क्या-क्या विचार मन में आए ?
स्वामी विवेकानंद ने अपने किसी मित्र को वेद की महिमा बताते हुए लिखा था- सृष्टि के आरंभ में आकाश स्थिर तथा अव्यक्त रहता है। बाद में प्राण ज्यों-ज्यों अधिकाधिक क्रियाशील होता है, त्यों-त्यों अधिकाधिक स्थूल पदार्थ उत्पन्न होते हैं, यथा पेड़, पौधे, पशु, मनुष्य, नक्षत्र आदि। कलांतर में सृष्टि की प्रगति समाप्त हो जाती है और प्रलय प्रारंभ होता है। सभी पदार्थ सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपों को प्राप्त करते हुए मूलभूत आकाश एवं प्राण में परिवर्तित हो जाते हैं। तब नया सृष्टि चक्र प्रारंभ होता है। आकाश एवं प्राण के परे भी एक सत्ता है, जिसे महत् का परिवर्तित रूप या उसकी अभिव्यक्ति है।

ब्रह्मांड पूजन पढक़र महत् का अर्थ सरल रूप में साकार हो गया। मन में विचार आया कि वेदांत का विख्यात सूत्र-तत्वमसि अर्थात तू वही है... कितना सरल-अटल सत्य है। ब्रह्मांड पूजन की प्रस्तावना में लेखक ने ईश्वर के प्रकृति स्वरूप की शक्ति पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि पृथ्वी ने हमारे सभी मानव, मसीहाओं, पैंगबरों, अवतारों को जन्म दिया है;  न कि उन्होंने पृथ्वी को। मसीहाओं के भी पूर्वज थे, माता-पिता थे और उनके भी वंश परिवार पूर्वजों से चले आ रहे थे। यह कड़वा सच है कि सभी मसीहा, अवतार, पैगंबर हम जैसे जनमें, बेशक उन्होंने काबिले तारीफ करिश्माई सांसारिक पूज्यनीय काम किए। उनको भी अंत में पृथ्वी छोड़ कर जाना पड़ा। उन्होंने भी तकलीफें झेलीं, परिश्रम किए। उनके जीवन में भी कई तहर की कठिनाइयां आईं; कइयों को वे लांघ सके, तो कइयों के सामने वे भी असमर्थ रहे। किंतु उनके बलिदान, त्याग निडरता ने उन्हें अमर किया और वे जन संसार की पहचान से उबर कर बाहर आए।

रचना शीर्षक मेरे ईश्वर सर्व ब्रह्मांड रचयिता... में लेखक कहता है कि आपका बनाया हुआ मायाजाल आपकी अद्भुत शक्ति है। मैं न कुछ, तुच्छ, लेकिन आपका बनाया हुआ मायाजाली अविष्कार हूं।
...यह मायाजाल है... तो इस जाल से कैसे छूटा जाए? यह मायाजाल उस मायापति ने बनाया है, इसके निर्माण में उसकी रजामंदी है... तो फिर क्यों न इस बात को जीवन का मूलमंत्र बना लिया जाए कि हे ईश्वर जिसमें तू राजी; उसमें मैं राजी... लेकिन यह तो कंधे से हल उतारकर रख देने वाली बात हुई। हल नहीं चलेगा, तो फसल कैसे होगी... विकास कैसे होगा... यह मायाजाल है, तो हमें इसे साक्षी भाव से देखना होगा... जिस तरह एक उत्तम कलाकार अपनी भूमिका का निर्वाह करता है, उसी तरह अपनी भूमिका का निर्वाह इस मायाजाल के सतत आभास, अहसास के साथ करते रहना ही उत्तम रहेगा।

ब्रह्मांड पूजन पढक़र तमाम विचार आए... सबसे उत्तम विचार तो यही रहा कि हम उसकी रचना हैं, जो सबका रचनाकार है... रचना को संतुलित बनाए रखने के लिए ही उसने भावों, संवेदनाओं, परिस्थितियों का दो पाटों वाला तानाबाना बुना है। कबीरदास के शब्दों में हमें याद रखना होगा कि चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। उसकी दया पाने और उसके कहर से बचने के लिए हमें दो पाटों के बीच संतुलन अपनाना होगा... तभी तो कहा गया है कि चक्की की धुरी से चिपके अनाज पिसने से बच जाते हैं। हमें सुख और दुख के बीच आनंद की धुरी तलाशनी होगी। सृजन और विध्वंस के बीच परिवर्तन की धुरी तलाशनी होगी।
प्रथम बार कहां और कितनी बार पढ़ा ?
घर में... दो बार।

क्या कांप्लेक्स मस्तिष्क में आए ?
इंफियरिटी कांप्लेक्स कि ईश्वर के कोप से कौन बच पाएगा... डायनासोर, अधर्मी, मसीहा... सभी फनां हो गए... तो हमारी औकात क्या... हमारा अहंकार कब बनेगा ईश्वर का आहार... कुछ कहा नहीं जा सकता। सुपीरियरिटी कांप्लेक्स कि समस्त ब्रह्मांड हमारे बारे में सोच रहा है... हम उसका हिस्सा है फिर चिंता क्या...
अपनी विचारधारा में कितनी हलचल महसूस की ?
बहुत... अवर्णनीय
प्राचीन विचारधारा से इसकी कैसी तुलना करेंगे ?
जैसे प्राचीन आदिमानव काल और इंटरनेटी इक्कीसवीं सदी की तुलना की जा सकती है। ठीक उसी तरह। ब्रह्मांड पूजन की विचारधारा वर्जिन है... इसमें ताजगी है... नए दौर में आसानी से पच सकती है।

संतों से लेखक की किसी प्रकार की तुलना करेंगे ?
प्रारंभ में इस बारे में कहा है।
गीतासार की तुलना में ब्रह्मांड पूजन कहां तक उचित ?
गीतासार महाभारत के युद्ध की विभीषिका के दौरान उपजा... ब्रह्मांड पूजन आज के भारत के युद्ध (जाति-पाति, छुआ-छूत, अंधविश्वास का युद्ध) की विभीषिका के दौरान उपजा है। काव्यमय है, संक्षिप्त है... लोगों ने अभी तक इसकी मनचाही व्याख्या करके भ्रमजाल नहीं रचा है।
क्या लेखक नास्तिक है ?
लेखक नास्तिक नहीं बल्कि ठोक बजाकर अपने विवेक से निर्णय लेने वाला आस्तिक है। जिस तरह सुबह होने से पहले रात बड़ी काली महसूस होती है ठीक उसी तरह घनघोर नास्तिक के ही परम आस्तिक बनने की संभावना होती है।
विश्वस्तरीय रचना है ?
रचना ब्रह्मांड स्तरीय है... विश्व भर के पाठकों का इसे प्रतिसाद मिले इस दिशा में कुछ और प्रयास किए जाने की जरूरत है।
किसी खास धर्म को इंगित करती है ?
नहीं, यह मानवता और प्रकृति धर्म को इंगित करती है।
मंदिरों-दीवारों में कैद धार्मिकता पर क्या प्रभाव ?
लेखक की इस बात में दम है कि कुदरत का कहर बुरी तरह बरसता है। पहाड़ों, गुफाओं, जंगलों, नदियों-समुदों के किनारे रहने वाले आदि मानवों ने भय के चलते ही आग, पानी, हवा, पत्थर, पहाड़ पूजने शुरू किए होंगे। महाविलासी इंद्र को देवताओं का राजा माना होगा। समाज में व्याप्त अंधविश्वास पर यह पुस्तक प्रहार करती है। सभी धर्मों में बुरी तरह पसरे-फैले पाखंडों की पोल खोलती है। ऐसे में इसका स्वाभाविक विरोध हो सकता है पर प्रमाणिक विरोध की गुंजाइश कम दिखती है।
अंधविश्वास, दर्शनशास्त्र, मान्यताओं, परंपराओं और आध्यात्मिता पर प्रभाव ?
यह किताब संजीवनी बूटी की तरह है। इसे ग्रहण करने के लिए वैद्य सुषेण जैसा जानकार नहीं तो हनुमान जी जैसा नि:स्वार्थ कर्मठ होना जरूरी है। यह परम विश्वास की बात करती है।
उपन्यासिक लेख, कल्पना या ग्रंथ ?
ब्रह्मांडिक विचार... विचार की तरंग से शब्दों के रूप में सामने आए हुए सूत्र। सूत्र संकलन कहना ठीक होगा।


कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यह लेखक को हुए दिव्य अनुभव का परिणाम है। जिस तरह मीराबाई कहती हैं कि घायल की गति घायल जाने, ठीक उसी तरह जिस पर विचारों की कृपा बरसी, उसे ही उसका वास्तविक आनंद पता है। इस आनंद को शत प्रतिशत शब्दों में गूंथना मुश्किल काम है... फिर भी प्रयास तो होने ही चाहिए।

एस. पी. यादव
वरिष्ठ पत्रकार हिंदी दैनिक महानगर, मुंबई
Viristh Patrakar Hindi Dainik Mahanagar , Mumbai

Sp Yadav
       S.P.Yadav Journalist